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उत्तराखंड: उजड़ते पहाड़ की दास्तान, आखिरी परिवार ने भी छोड़ा गांव, आखिर कब तक?

पौड़ी: उत्तराखंड के उजड़ते पहाड़ों की दास्तान किसी से छुपी नहीं है। गांव के गांव खाली हो गए। बंद घरों के किवाड़ आज भी अपनों के लौट आने का इंतजार कर रहे हैं। कई गांव भुतहा गांव में तब्दील हो गए। सरकारें गांव को आबाद करने के दावे करती रही। लेकिन, दावे केवल बंद AC कमरों के कोने में रखी किसी अलमारी में बंद फाइल के पन्नों में दफन होकर रह गई।

गांव से शहर आने का सिलसिला लगातार जारी है।‌यह सिलसिला खुशी का सिलसिला नहीं। बल्कि, मजबूरी में लोगों को गांव छोड़ने पर रहे हैं। ऐसी ही दास्तान पौड़ी जिले के दुगड्डा ब्लॉक के भरतपुर गांव की भी है। यह गांव कभी आबाद होता था। हंसते-खेलते परिवार इस गांव में रहा करते थे। लेकिन, गांव को जंगली जानवरों की ऐसी नजर लगी एक के बाद एक लोग गांव छोड़कर चले गए और गांव उजड़ता था चला गया। गांव वालों ने सिस्टम को खूब धै (पुकार) लगाई। लेकिन, कानों रूई ठूंसे मंत्रियों, अधिकारियों को कुछ सुनाई नहीं पड़ा। सुना भी होगा, तो अनसुना कर दिया।

दरअसल, नेताओं को किसी गांव के उजड़ने और बर्बाद होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। गांव छोड़कर जो लोग शहर आ जाते हैं, नेताओं को उनका वोट भी मिल जाता है। इसलिए उनको बहुत ज्यादा चिंता नहीं रहती। रही बात अधिकारियों की तो उनको हर महीने मोटी तनख्वाह मिलती रहती है। केवल तनख्वाह ही नहीं।बल्कि, हर साल कुछ ना कुछ वेतन भत्तों के नाम पर बढ़ोतरी अलग से मिलती है और प्रमोशन अलग, फिर उन्हें किसी गांव के उजड़ने से क्या फर्क पड़ेगा।

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स्थिति अब यह है कि दुगड्डा ब्लॉक का भरतपुर गांव में रह रहे आखिरी परिवार ने भी अब गांव छोड़ दिया है। इस गांव में गुलदार ने ऐसा आतंक मचाया तो पूरा गांव ही खाली हो गया। गुलदार ने यहां कई लोगों को अपना निवाला बनाया तो कई लोगों को जीवन भर के लिए अपंग कर दिया।

गुलदार की दहशत से एक और गांव खाली हो गया है। भरतपुर के अंतिम परिवार ने भी गांव छोड़ दिया है। एक सप्ताह पहले भी दुगड्डा का गोदी बड़ी गांव पूरी तरह खोली हो चुका है। पोखड़ा और एकेश्वर विकासखंड के कई गांवों में पलायन का सिलसिला जारी है। पोखड़ा विकासखंड की मजगांव ग्राम पंचायत के गांव भरतपुर के लोगों ने गुलदार का निवाला बनने की बजाय घर छोड़ना ही बेहतर समझा।

पोखड़ा ब्लॉक की ग्राम पंचायत मजगांव में मजगांव, डबरा, सुदंरई, नौल्यूं, भरतपुर और चौबट्टाखाल बाजार का आशिंक क्षेत्र पड़ता है। चौबट्टाखाल बाजार में रह रहे पूर्व जिला पंचायत सदस्य और भरतपुर गांव के मूल निवासी प्रवेश सुंद्रियाल बताते हैं कि उनके बड़े भाई रमेश चंद्र सुंद्रियाल गुलदार के डर से परिवार समेत निकटवर्ती कसबे गवाणी में शिफ्ट हो गए हैं।

गांव के रमाकांत सुंद्रियाल भी गांव से करीब 300 मीटर ऊपर सड़क पर नया मकान बनाकर रहने लगे हैं। गांव के दो परिवारों में से एक ने दिल्ली और दूसरे ने देहरादून का रुख कर लिया है। ग्राम प्रधान मोनिका देवी, समाज सेवी सुधीर सुंद्रियाल का कहना है कि गुलदार दिन दहाड़े आ जाता है।

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क्षेत्र में कई घटनाओं के बाद जब वन विभाग और शासन प्रशासन ने कोई कदम नहीं उठाया तो गांव वालों के लिए पलायन ही एकमात्र विकल्प बचा। उनका कहना है कि यहां के लोग पहाड़ में विषम हालात में रहने को तैयार हैं, लेकिन गुलदार ने उनका जीना दूभर कर दिया है।

गुलदार के हमले की घटनाएं

  • 10 जून 2021 को गोदांबरी देवी पत्नी ललिता प्रसाद ग्राम डबरा की गुलदार के हमले में मौत।
  • 25 मई 2018 को पोखड़ा के सुंदरई (कोलखंडी) ग्राम सभा मजगांव, निवासी वीरेंद्र कुमार पुत्र कृपाराम (67) को मौत के घाट उतारा।

 

गुलदार के हमले में घायल

  • 15 जुलाई 2019 को पोखड़ा के ग्राम खंदोरी निवासी युवक दिनेश सिंह हमले में घायल।
  • 15 अक्टूबर 2019 को पोखड़ा के ग्राम कस्याणी में चार वर्षीय बच्चे शिवम पर घर में हमला।
  • 16 दिसंबर 2019 को पोखड़ा के बगड़ीगाड में युवक साहिल पुत्र कैलाश चन्द्र पर हमला।
  • 18 मार्च 2020 को पोखड़ा के गवाणी गांव के अनिल सिंह पुत्र आनंद सिंह पर हमला।
  • 18 जुलाई 2020 पोखड़ा के थापला में घर के आंगन में बैठी किशोरी अनामिका पर हमला।
  • 6 मार्च 2021 को पोखड़ा के कुई गांव निवासी कांति देवी पत्नी विनोद कुमार पर हमला।
  • 22 मई 21 को पोखड़ा के खेतों में काम कर रही सुन्दरई गांव की जयेश्वरी देवी पर हमला।
  • 9 जून 2021 को पोखड़ा के गवाणी गांव के निकट नेपाली मजदूर पर हमला कर उसे दौड़ाया।

 

गुलदार के हमलों के ये आंकड़े पढ़ने और समझने के बाद अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह से उस पूरे इलाके में गुलदार लोगों की जान का दुश्मन बना हुआ है। वन विभाग और सरकार हर बार यही दावा करते हैं कि मानव वन्यजीव संघर्ष को कम करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।

सवाल यह है कि आखिर वह कौन से प्रयास हैं, जो कभी पूरे ही नहीं होते, जिनका परिणाम केवल गांव छोड़ने के लिए मजबूर सोनू है। हर बार मानव-वन्यजीव संघर्ष के लिए बस इंसानों को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, जबकि वन विभाग का पूरा तामझाम धरा का धरा रह जाता है। ये वही गांव थे जो सालों से आबाद थे। फिर अचानक इन गांवों में गुलदार का इतना भयानक आतंक कैसे हो गया, इस सवाल का जवाब ढ़ूढे बगैर शायद समस्या का समाधान कभी नहीं पाएगा।

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