एक्सक्लूसिव : यहां है उत्तराखंड का प्रयागराज, लोगों की आस्था का केंद्र, इतिहास के लिए पहेली
एक्सक्लूसिव : यहां है उत्तराखंड का प्रयागराज, लोगों की आस्था का केंद्र, इतिहास के लिए पहेली
EXCLUSIVE
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गंगनाणी कुंड: धार्मिक मान्यताएं और 1826-1838 के बीच की ऐतिहासिक घटना।
- प्रदीप रावत (रवांल्टा)
‘प्रयागराज’ के बारे में आप जानते सभी जानते हैं कि प्रयागराज उत्तर प्रदेश में है। लेकिन, कम ही लोग यह जानते हैं कि उत्तराखंड में भी ‘प्रयागराज’ है, जहां ‘प्रयागराज’ पहुंचने से पहले मां गंगा और मां यमुना का दिव्य संगम होता है। इसको और खास बनाता है इन दोनों पवित्र नदियों के साथ केदार गंगा का संगम। ‘प्रयागराज’ और त्रिवेणी उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में है। अब हम आपको इसके बारे में विस्तार से बताएंगे। क्योंकि यह ‘प्रयागराज’ जितना लोगों के लिए आस्था और मान्यताओं के लिहाज से महत्वपूर्ण है, उतना ही इतिहासकारों के लिए इतिहास के नजरिए से भी है। हालांकि, यह आज तक इतिहासकारों के लिए एक पहेली ही बना हुआ है। इस पहेली को सुलझाने का प्रयास डाकपत्थर डिग्री कॉलेज में तैनात इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता डॉ. विजय बहुगुणा ने किया है।
आस्था और इतिहास। दोनों के अलग-अलग मायने होते हैं। लेकिन, दोनों का आपस में जुड़ाव भी है और एक दूसरे से बिल्कुल अलग भी। किसी धार्मिक मान्यता के पीछे की सच्चाई को इतिहास ही उजागर करता है। इतिहास को जाने बगैर वर्तमान को जानना थोड़ा कठिन हो जाता है। आस्था ज्ञान के आधार के बिना किसी भी परिघटना को सत्य मानने का विश्वास है। जबकि इतिहास अतीत के प्रकाश में वर्तमान को समझना है। इतिहास अनेक उलझी समस्याओं को सुलझाने का रास्ता है।
यमुनोत्री मार्ग पर गंगनानी कुंड
इतिहास को जाने बगैर हम अपने जीवन की पहेलियों को नहीं समझ सकते। आस्था का अपना स्थान है और इतिहास का अपना। ऐसी ही एक धार्मिक और ऐतिहासिक पहेली उत्तरकाशी जिले की यमुना घाटी में यमुनोत्री मार्ग पर गंगनानी कुंड है, जो लोगों की धार्मिक आस्था का केंद्र है। यहीं पर गंगा-यमुना और केदार गंगा का संगम होता है। इससे कुछ इतिहास भी जुड़ा है। उसी इतिहास की कड़ियों को जोड़कर अतीत के आलोक में वर्तमान को देखने और समझने का प्रयास है।
इतिहास की दृष्टि से गंगनानी क्या है
इतिहास की दृष्टि से गंगनानी क्या है ? यह जानने की कोशिश है। इस कोशिश में इतिहासकार और पुराविद्द डाॅ. विजय बहुगुणा ने गंगनानी कुंड में लिखे शिलालेख और उससे जुड़े तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यह बेहद महत्वपूर्ण है। जबकि, धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गंगनानी का खास महत्व पहले भी था और आगे भी रहेगा। गंगनानी में एक शिलालेख भी है, जो करीब 1826 के आसपास का है। इसमें जो बातें खिली गईं हैं। उनसे ऐसा लगता है कि इस कुंड का निर्माण बाद में कराया गया है। पहले यहां केवल जलधारा रही होगी। उस जलधारा का संबंध भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि से माना जाता है। इसका धर्मग्रंथों में उल्लेख भी मिलता है। क्योंकि गंगनानी से कुछ दूरी पर थान गांव में (ब्रहमपुरी) में ऋषि जमदग्नि की तप स्थली भी है।
गंगनानी शिलालेख
गंगनानी कुंड के पवित्र जल में स्नान के लिए रंवाई घाटी में लोग दूर-दूर से आते हैं। यह माना जाता है कि जो लोग पहले गंगोत्री नहीं जा पाते थे, वो यहीं पर गंगा स्नान कर लेते थे। आज भी गंगनानी लोगों की आस्था का केंद्र है। गंगनानी कुंड बहुत ही शानदार तराशे गए पत्थरों से बनाया गया है। वहां एक मूर्ति भी है। जिस जगह से भागीरथी की जल धारा निकलती है, उस पर एक चबूतरा बनाया गया है। उसी पर शिलालेख लिखा गया है।
शिलालेख का भावार्थ
दि पूजने परावभूवाखिल धर्म…. धीः। सेय मठाधीशनपत्परात्ती
भषानिया।
भूमिप्रियाभवंद्या गार्हत यो वापि विनिर्मिता सौकाले…भागीरथ ……रंगाय।
इस शिलालेख की कुछ लाइनें मिट चुकी हैं। पुराविद और इतिहासकार डाॅ. विजय बहुगुणा ने काफी प्रयासों के बाद इन लाइनों की जानकारी जुटाई और फिर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इसकी महत्ता को जानने और समझने का प्रयास किया।
शिलालेख के अनुसार
मण्डी देश केे अधिपति जालमसेन (शासन 1826-38 ईस्वी, पुत्र महाराज ईश्वरी सेन, समधी गढ़वाल महाराज सुदर्शन शाह, मातामह/नाना गढ़वाल महाराज प्रताप शाह) की बेटी के लिये पूजन करने के लिये यहां के मठाधीश द्वारा वापी विनिर्माण का संकल्प लिया गया था।
यहां तंत्र-मंत्र का बोलबाला था
डाॅ. विजय बहुगुणा का कहना है कि जहां तक मंडी देश के राजा का प्रश्न है। कई तथ्यों में यह चीजें सामने आई हैं कि तब वो गढ़वाल में आते रहते थे। यहां तंत्र-मंत्र का बोलबाला था। मोलाराम तोमर भी मन्मथ पंथ में दीक्षित थे, जिसके प्रभाव के चलते हिमाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों में भी मन्मथ पंथ का प्रभाव रहा। यह अभिचार स्थल था। गंगनानी कुंड के बारे में भी यह जान पड़ता है कि जल संरचना को देखते हुए जान पड़ता है कि मृतक की चिर स्मृति को संजो के रखने के लिए कुंभ का निर्माण कराया गया होगा। इसका एक सिरा स्काॅटिश लेखक जेम्स बेली फ्रेजर के यात्रा वृतांत से भी जुड़ता है। यात्रा वृतांत पर आगे बात करेंगे। पहले कुछ और पहलुओं के बारे में जान लेते हैं।
जल की शपथ, और सच-झुठ का फैसला
पुराविद डाॅ. बहुगुणा के अनुसार शिलालेख से जान पड़ता है कि मंडी का राजा और गढ़वाल का राजा तंत्र-मंत्र का जानकार था। तांत्रिक परम्परा से वे भलीभांति वाकिफ थे। मोलाराम तोमर मन्मथ पंथ दीक्षित हो चुके थे। मध्यकालीन चित्रकार और कवि वाममार्गी था, हिमांचल प्रदेश के विभिन्न रियासतों में मन्मथ पंथ का प्रचार हो चुका था। जान पड़ता है कि तंत्र-मंत्र की सुदीर्घ परंपरा रही है। जल की शपथ, और सच-झुठ का फैसला गंगनानी की परंपरा रही होगी। इसका तात्पर्य यह है कि कालांतर में यहां लोगों के सच-झूठ बोलेन का फैसला जल है कि यहां पहले केवल जल धारा ही रही होगी। कुंड का निर्माण बाद में कराया गया होगा।
जेम्स बैल्ली फ्रेजर 1815
जेम्स बेली फ्रेजर। ये स्काॅटिश घुमक्कड़ और लेखक थे। खासकर यात्रा वृतांत लेखन में जेम्स बेली फ्रेजर का नाम काफर चर्चित रहा। फ्रेजर 1815 के आसपास गोरख्य्याणी के दौर में गंगा और यमुना नदी के स्रोतों (उद्गम) को देखने के लिए आया था। भ्रमण करने के बाद जब वो वापस लौटा तो 1820 ईस्वी में उसने एशियाटिक रेसेरचेस जर्नल का प्रकाशन किया था, जिसे जर्नल ऑफ ए टूर : द हिमालया माउंटेन्स 1820 नाम दिया गया था।
1815 ईस्वी में जेम्स बेली फ्रेजर ने गंगनानी को देखा था..
अपने यात्रा वृतांत में जेम्स फ्रेजर ने कुछ महत्वपूर्ण इलाकों का जिक्र किया, जिसमें बर्निगाड, लाखामंडल, भंकोली, गुंडियात गांव, रामा सिराईं, केदार कांठा, पाली गाड़, और कुर्सिल गांव के बारे में भी लिखा है। खास बात यह है कि 1815 ईस्वी में जेम्स फ्रेजर ने गंगनानी को देखा था। लेकिन, उसने अपने यात्रा वृतांत में कुंड और शिलालेख का उल्लेख नहीं किया है। डाॅ. विजय बहुगुणा का कहना है कि इससे यह जान पड़ता है कि जेम्स फ्रेजर ने शिलालेख और कुंड को देखा ही नहीं हो या फिर यह भी हो सकता है कि कालांतर में गंगनानी का प्रस्तर शिलालेख और जलकुंड अस्तित्व में आया ही नहीं होगा। यह शिलालेख संभवतः 1826-1838 के मध्य का जान पड़ता है।
वहां भगीरथी की जलधारा जरूर थी
यही वो ऐतिहासिक तथ्य है, जिससे यह साफ होता है कि 1815-1816 तक गंगनानी में कुंड नहीं था। वहां भगीरथी की जलधारा जरूर थी। शिलालेख के कालखंड और जेम्स बेली फ्रेजर की यात्रा का अध्ययन करने के बाद यह माना जा सकता है कि गंगनानी कुंड लगभग 1826-1838 के बीच अस्तित्व में आया होगा। इसको लेकर कई मत हो सकते हैं, लेकिन धार्मिक मत हमेशा बना रहेगा। धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार गंगनानी का संबंध नौगांव ब्लाॅक की गोडर-खाटल पट्टी के देवल गांव से भी जुड़ता है।
लकुलीश भगवान शंकर के अवतार
देवल गांव की गुफा में लकुलीश की मूर्ति मिली थी। ये मूर्ति करीब 1000 साल पुरानी मानी जा रही है। भगवान शंकर को स्वयंभू माना जाता है। लेकिन, पुराणों के अनुसार उन्होंने लकुलीश नाम के ब्राहमचारी के रूप में अवतार लिया था। यह भी साफ है कि भगवान शंकर की जटाओं से ही धरती पर गंगा अवतरण हुआ था। ऐसे में भगवान शंकर और गंगनानी में मां गंगा के अवतरण को जोड़कर देखा जा रहा है। गंगनानी में भागीरथी और देवल में भगवान शंकर के अवतार का सीधा संबंध हो सकता है।
यहां निकलती है भागीरथी की जलधारा
यमुनोत्री जाने वाली मार्ग में यमुना नदी के किनारे प्राचीन कुंड है, जिसमें भागीरथी की जलधारा निकलती है। मान्यता है कि गंगनानी (गंगनाणी) के निकट स्थित थान गांव में भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि की तपस्थली थी। जहां ऋषि तपस्या करते थे। कहा जाता है कि यहां पूजा-अर्चना के लिए ऋषि जमदग्नि हर रोज उत्तरकाशी से गंगाजल लेकर आया करते थे और जब उनकी उम्र अधिक हो गई तो उनकी पत्नी रेणुका पूजा के लिए गंगाजल लाया करती थी। कई कोस दूर गंगाजल के लिए जाना पड़ता था।
राजा सहस्त्रबाहु
मान्यता है कि थान गांव ब्रहमपुरी और गंगनानी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बड़कोट में रेणुका की बहन बेणुका का पति राजा सहस्त्रबाहु रहते थे, जो जमदग्नि ऋषि से ईष्या करता था। गंगाजल लेने जाने के दौरान रेणुका को सहस्त्रबाहु परेशान करता था। इसके बाद जमदग्नि ऋषि ने अपने तपो बल से गंगा भागीरथी की एक जलधारा को यमुना के तट पर स्थित गंगनानी में ही प्रकट कर दिया, तब से जलधारा प्रवाहित होती है।
भागीरथी जैसी ही है गंगा की धारा
गंगनानी (गंगनाणी) में स्थित प्राचीन कुंड से निकलने वाले जलधारा भागीरथी से इसलिए भी निकली मानी जाती है कि क्योंकि उसके वैज्ञानिक तथ्य आज भी हैं। दरअसल, इस जलधारा की प्रकृति पूरी तरह गंगा भागीरथी जैसी ही है। जैसे ही भागीरथी में गंगा जल का जल स्तर कम होता है। यमुनाघाटी में स्थित गंगनानी कुंड में भी जल का स्तर कम हो जाता है। माना जाता है कि जमदग्नि ऋषि की तपस्या के बाद इस धारा के आगे एक गोल मूसलनुमा पत्थर बहते हुए आया, जो आज भी गंगनाणी में मौजूद है।
आज बच्चों के चूड़ा कर्म, विवाह, स्नान, और अंतिम संस्कार तक के सारे धार्मिक अनुष्ठानों का यह मुख्य केंद्र हैं। इसी पौराणिक धार्मिक स्थल गंगनानी में दिनांक 13 फरवरी से 15 फरवरी- 2024 तक कुंड की जातर का भव्य आयोजन होने जा रहा है।
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